इतिहास

Rashtra Sevika Samiti    06-Feb-2013
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हम भारतवासी भाग्यवान है। हमें उज्जवल इतिहास और परंपरा है। राष्ट्र तथा विश्वकल्याण हेतु ऋषिमुनियोंका qचतन है। उस चतन को प्रत्यक्ष में लाने के लिय नीतिनियम, व्रत,त्योहारोंका आयोजन है। निसर्ग आर भारतीय मानव जीवन एक दूसरे के सहयोग से चलता आया है। ज्योतिष्य,खगोल,ज्ञानविज्ञान, गणित, नौकानयन, शिल्पशास्त्र, आदि शास्त्रों के मूलतत्वों का किया गया अभ्यास है। संगीत, नृत्य,बुनकाम,चित्ररेखन जैसी कलाओं में हमनें निपुणता पायी है। सृष्टिनिर्माण कैसे हुआ? हरेक व्यक्ती का जीवनकार्य क्याहै? इसका विचार हुआ है। आत्मा की चिरंतनता का बोध, व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि, परमेष्टि इस आवश्यक विकासक्रम का ज्ञान, समाज सुचारू रूप से चले गये इसलिये qचतक, शिक्षक, रक्षक, वणिक तथा सेवक इन चार वर्गोंका विचार, व्यक्ति और समाज में योग्य क्रियान्वयन रहे इस कारण चार आश्रमों की व्यवस्था आदि कई बातें हमनें धरोहररूप में पायी है। राम, कृष्ण, बुद्ध जिन जैसे कई राष्ट्र पुरूषों का जीवन, उन्होंने स्थापित किये विविध विचार और आदर्श हमारें सामने है। परिस्थितीवश निर्माण हुई कई विचारधाराएँ विविध दर्शनोंके रूप में हम पाते है। राष्ट्र कल्याण तथा गौरव हेतु जीवन अर्पण करनेवाले वीर, समाज कर्तव्य प्रेरित करनेवाली महिलाएँ, इन चरित्रों से हमारे इतिहास के पन्ने गौरवान्वित हुएँ है।
इस विस्मृत धरोहर का ज्ञान त्रपर से करा देना, बदलते काल और परिस्थितीमें जो अयोग्य या कालबाह्य सिद्ध हुआहै उसका त्याग, अन्य राष्ट्रों जो अच्छा है उसका स्वीकार, भौतिक विकास के साथ-साथ अध्यात्मिक qचतन, हमारे प्राचीन साहित्य कमा अभ्यास और उसमें प्रेरणा निर्माण करनेवाले रूप को और कथाओं का विश्लेषण, भारत एक जगद्वंद्य राष्ट्र बने इसलिये प्रयास यह सब मेरा कर्तव्य है इस भाव से प्रेरित व्यक्तियों का निर्माण आदि सभी कार्यो में नारी शक्ति का योगदान महत्वपूर्ण रहता आया है। आज भी है और कल भी रहेगा यह विश्वास राष्ट्र सेविका समिति महिलाओं में निर्माण कर रही है।
वास्तव में यह कोई नया कार्य नही है। सदियोंसे चलता आया दायित्व है। संक्रमण काल में व्यस्तचित्तता के कारण यह कर्तव्य दृष्टि से बोझल हो गया था। अत: आवश्यकता वा यह शक्तिजागरण शुरू हुआ है। यह भारतीय मूलाधार पर ही हो रहा है। महात्मा गांधी जी ने कहाँ है,‘हम नये विचारोंका आलंबन अवश्य करेंगे। नये अक्षर लिखेंगेलेकिन जिसपर लिखना है वह आधार हमारा ही होगा।ङ्कभारत का मूलाधार है हिंदुत्व। वही भारत का राष्ट्रीयत्व है। हिंदुत्व यहीं राष्ट्रीयत्व है यह तत्व राष्ट्र सेविका समिति द्वारा विकसित हो रहा है।
संस्कार निर्माण से माता का स्थान महत्वपूर्ण है। प्रथम है, ‘मातृदेवो भवङ्क। तद्नंतर ‘पितृदेवे भवङ्क,‘आचार्यदेवो भवङ्क। कुछ संस्कार जन्मजात होते है, कुछ प्रयत्नपूर्वक किये जाते है। अनुकरणप्रिय मानव, समाजवंद्य लोगोंके जीवन से, कृति स, विचारों से संस्कार गअहण करता है। समाज में पर्याप्त संख्या में संस्कारित व्यक्ति रहे यह प्रयास प्राचीन काल से भारत करता आया है। संत ज्ञानेश्वर ने कहां है,‘वर्षत सकळ मंगळी। ईश्वरनिष्ठांची मांदियाळी। अनवरत भूमंडळी भेटतु तया भूताङ्क। हमेशा कल्याण का वर्षाव करनेवाला समूह समाज में सदा विचरता रहे। सामान्य लोगों को विनाप्रयास उसकी भेट हो। आदर्शभूत एक नहीं अनेक व्यक्ति समाज में रहे। व्यक्तिगत मोक्ष या ज्ञानपिपासा में वे बद्ध न होंगे। समाज में सभी से मलिते-जुलते रहेंगे तब संस्कारों का कार्य विनाप्रयास आपने ही आप होगा। राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापिका तथा प्रथम प्रमुख संचालिका वं. लक्ष्मीबाई केलकर ने यहीं सोचा। स्वयं के जीवन से, विविध कृतियों से सेविका ओं के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया। ‘एकोऽहं बहु स्याम्ङ्क की तरह आज प्रचारिकायें और प्रवासी कार्यकर्ती बहने अपने कार्य से समाजमन में प्र्रेरणा निर्माण कर रही है।
कुछ संस्कार निर्माण करने पडते है। जैसे कि जिजामाता ने, विदुला ने कथा कहानियां के माध्यम से किये। यह ध्यान में रखते हुए राष्ट्र सेविका समिति यह कार्य साहित्य निर्माण, विविध कार्यक्रम, बौद्धिक, चर्चा,सेवाकार्यों के द्वाराकर रही है। विविध समाजक्षेत्रों में वह कार्यरत है।भारत के अधिकांश तहसीलों में शाखाएँ है। ३४५ सेवाकार्य चल रहे है। १५ शैक्षणिक प्रकल्प है। भारत की सभी भाषाओं में सााहत्यि प्रकाशित हो रहा है। विविध प्रकार का सांस्कृतिक कार्य चल रहा है।भारत के बाहर २२ देशोंमें कार्य है।
हरेक व्यक्ति में ईश्वर का अंश है। सभी समान है इस विचार का प्रत्यक्ष दर्शन समितिकार्य में होता है। वर्ग जाति, संपत्ति के विचारसे भेद नहीं होता। आवश्यकतावश उन्नतीनुसार एकश; संपत्ति है। इसी विचार से समाज समाज में चलनेवालेसमाजोपयोगी अन्य कार्य, संस्था, संगठन क प्रति योग्य आदरभाव है।सब मिलकर आगे बढना है। यह विचार है। मूल प्रेरणा कल्याणकारी हो और कार्य विधायक हो यह आग्रह है। सकारात्मक दृष्टि रहे यह प्रयास है। अधिकारोंका संयम,व्यक्तियोंका सम्मान है। तत्व अडिग है। व्यवहार लचिला है। स्वदेशी भाव का पालन है। सुदृढ, स्वाभिमानयुक्त, सुसंस्कारित, संगठित नारीशक्ति से भावी भारत निश्चित ही तेजस्वी बनेगा।
सन १९०५ में बंगाल का विभाजन हुआ। उसका विरोध करने के लिये केवल बंगाल नहीं तो समुचा भारत सज्ज हो उठा। वंदे मातरम् यह मंत्र सभी को प्रेरणा देने लगा। स्वदेशी का आंदोलन प्रखर होता गया। परिणामत: अंग्रेज शासन को विभाजन का वह आदेश वापस लेना पडा। फिर भी डिसेंबर १९११ को पंचम जॉर्ज के दरबार में कई राजा महाराजा और रईस लोग विनम्र भाव से संमिलित हुए। थे।
जुलै १९१४ में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हुआ। १८८५ में राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना हुई थी। कार्य बढ रहा था। फिर भी स्वतंत्रता संघर्ष समाज के सभी स्तरों तक पहुँचा नहीं था। इस युद्ध में भी तथाकथित उच्च वर्ग ने अंग्रेजी की सहायता की। १९१७ में होमरूल लीग की कल्पना लोगों के सामने रखी गयी। लो. तिलक की चतु: सूत्रीने स्वराज्य,स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा ने सभी को आकर्षित किया था।अंग्रेजोंने लो. तिलक को उपाधि प्रदान की तेली तांबोली लोगों का नेता। अर्थ स्पष्ट था स्वतंत्रता संर्गे समाज के सभी स्तरो तक पहुँच रहा था। लो. तिलक के स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध हक्क है। इस qसहनाद से सारी तरूणाई त्यागार्थसिद्ध हुर्स और सर्व समाज जागृत हो उठा। १९१८ में विश्वयुद्ध समाप्ती के बाद अंग्रजों द्वारा मनाये जानेवाले विजयोत्सव को अंग्रजों को अपेक्षित प्रतिसाद प्राप्त नही हुआ। १९१९ में माँटेग्यू चेम्सफर्डसुधार के साथ-साथ भारतीयोंके संचार और भाषण स्वातंत्र्य दबाने *रौलट अॅ१क्ट* भी संमत हुआ। उसका विरोध होने लगा। अत्याचारी शासन ने जालियनवाला बाग हत्याकांड रच डाला। उसका गहन असर सभी पर हुआ था।
१९२० अगस्त में लो. तिलक की मृत्यु हुई। गांधीजी स्वतंत्रता संघर्ष के नेता बने। धीरे धीरे इस संघर्ष में महिलाओंका का सहभाग बढने लगा। किन्तु १९२४ मेंहिंदु और मुस्लिमों के दंगे शुरू हुए। १९२६ में हिंदु संगठन का मंत्र देनेवाले स्वामी श्रद्धानंद की रशीद नामक एक मुस्लिम ने हत्या कर दी। १९२५ की एक महत्वपूर्ण घटना थी राष्ट्रीय स्वयं सेवकसंघ का प्रारंभ। १९२८ सायमन कमिशन का विरोध करनेवाला लाला लजपतराय की मृत्यु अंग्रजोंके अत्याचार के कारण हुई। १९३० संपूर्ण स्वातंत्र्य की घोषणा - दांडी यात्रा, कानूनभंग आंदोलन से गुंज उठा। सभी कार्यक्रमों में महिलाओं का सहभाग बढता रहा। नागपूर काँग्रेस की अध्यक्षा १९३० में थी अनसूयाबाई काळे । प्रभातफेरियाँ, पिकेqटग आदि कार्यक्रमों में महिलाएँ सहयोग देने लगी।
क्रांतिकारक  १९०८  से ही सक्रिय हो चुके थे। इस आंदोलन मे सुशीलादीदी, दुर्गाभाभी आदि महिलाएँ कार्यरत थी। परिणामत: जगह जगह महिलाओंने राष्ट्रकार्य में अपनी जिम्मेदारी निभाने का कार्य शुरू किया था।
जुलै १९०५ में जन्मी वं लक्ष्मीबाई केलकर ने वातावरण से स्वतंत्रता संस्कार ग्रहण किये थे। बढती आयु में सभी घटनाओंका विचार शुरू हुआ। काँग्रेस के आंदोलन में सहभाग भी रहा। qचतन चल ही रहा था। पिकेqटग के समय अनुभव हुआ कि महिलाओंके योग्य सम्मान नहीं मिल रहा है। साथ ही साथ नेता तथा कार्यकर्ता गण भी स्त्रियां अपने कंधें से कंधा लगातें चले यहीं नहीं चाहते थे। नागपुर के संत्रा मार्केट में महिलाओंको मजबुरी से अनिच्छा से दलालों को देह समर्पित करना पडता था। स्त्री का देह मानो एक चलन बन गया था। सर्वसामान्य स्त्री घर की चारदिवारी में बंद थी। स्त्री शिक्षा प्राप्त कर रहीं थी किन्तु नासमझ में पडी थी। प्राप्त परिस्थिती में दायित्व क्या है? उसे कैसे निभाना है? विचारतो शुरू हुआ था। मार्ग नहीं मिल नही रहा था। समोचारपत्रों का वाचन और चर्चा शुरू हुई थी। इन सभी प्रयत्नों को एक सूत्र में गूंथना और योग्य दिशा देना जरूरी था।
ऐसे विचारतरंगों पर वं. मौसीजी हिलोरे ले रहीं थी। और एक तिनका हाथ आया। महिलाओंने सीता बनना चाहाँ। कैसी सीता? वनवास के कष्टोंको सहने की मानसिकता रखनेवाली निडर सीतारावण के पकड में जकडी होते हुए भी प्रसंगावधशन रख अपने गहने फेंकनेवाली सीता। अशोकवन की क्रूर राक्षसियोंको भी अपनी सहकारी बनानेवाली। रावण के डाँटों से जरा भी विचलित न होनेवाली, श्रीराम के पराक्रमों को प्रेरणा देनेवाली। बस निश्चय हुआ। स्वसंरक्षणक्षम, शारीरिक, मानसिक बौद्धिक दृष्टी से सक्षम स्त्री निर्माण करना। उसके विस्तृत सामथ्र्य को जगाना।
किन्तु कैसे? विचार कृति में परिवर्तित करने पडेंगे। और रा. स्व. संघ का प्रतिदिन का कार्य सामने आया। पू. डॉ. हेडगेवारजी, मा. अप्पाजीइनसे चर्चा हुई। सीताचरित्र अभ्यास के लिये रामायण का अभ्यास शुरू था। हिंदुत्व संबंधी विचार स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी के साहित्य के qचतन से पक्क हुए। संगठन संबंधी मार्गदर्शन समर्त रामदासजी के विचारोंसे मिला। और प्रत्यक्ष सहयोग मिला डॉ. हेडगेवार जी का। विजयादशमी १९३६ के सुमुहूर्त पर राष्ट्र सेविका समिति की प्रथम शाखा वर्धा में प्रारंभ हुई।
वर्धा से प्रवाहित गंगा
ब्रिटिशोंके माध्यम से भारत का फिर एक बार विश्व से संपर्क बढा। वैज्ञानिक विकास के कारण ब्रिटिशोंने प्राप्त की भौतिक सुविधायें जो लोककल्याण हेतु नहीं, शासन सुव्यस्थित चले इस दृष्टि से भी क्यों न हो- रेल,पोस्ट जैसी सुविधायें भारतीयोंको प्राप्त हुई। इन सारी बातों से चकाचौंध भारतीयों को धीरे धीरे अंग्रजोंद्वारा होनेवाला अन्याय, अत्याचार, धनशोषण का पता चलने लगा और निद्रित qसह जाग उठा। स्वतंत्रता, संघर्ष, क्रांतिकारकों का त्याग आदि से महिलायें भी सजग हुई। वर्धा, भंडारा, सातारा और पुणे में कार्य शुरू हुआ। १९३६ में राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना होने के बाद सारे झरने समिति में जा मिले और प्रवाह बहने लगा।  स्वाभाविक ही प्रथम विदर्भ को सुफलित करते हुए आगे बढा।
महाराष्ट्र
पुणे में वं सरस्वती आपटे ने काम शुरू किया ही था। १९३८ में मौसी जी से भेंट होने पर उन्होंने अपना काम समितिकार्य में विलीन किया। मुंबई मे सुप्रसिद्ध लेखिका और कवयित्री योगिनीताई जोगळेकर ने नायगाव में शाखा शुरू की। १९४८ में qसध से आयी हुई बहने ठाणे शिक्षा वर्ग में उपस्थित थी। नाशिक में राणी लक्ष्मीबाई स्मारक समिति के द्वारा राणी लक्ष्मीबाई भवन यह समिति का प्रथम भवन निर्माण हुआ १९५८ में । प्रथम घोष प्रशिक्षण वर्ग भी १९६६ में यही हुआ।
अकोला में १९३८ में काम प्रारंभ हुआ। यहीं की एक सेविका मा. qसधुताई ने आगे चलकर प्रथम प्रचारिका के नाते कार्य समूचे उत्तरी क्षेत्र में फैलाया। अमरावती की लीला ताटके विवाह के बाद उज्जैन गयी और वहाँ कार्य शुरू हुआ।
१९३९ के अंत में महाराष्ट्र की चारो दिशाओंमें शाखाएँ स्थापित हुई थी। १९४० में पुणे में प्रमुख कार्यकर्ती बहनों की बैठक हुई। काकू परांजपे,नागपुर विभाग प्रमुख नियुक्त हुई। हर साल ऐसी बैठक लेने का निर्णय भी हुआ। १९४१ में वं. मौसी जी पंढरपुर गयी थी देवदर्शन के लिये। फिर भी वहाँ भी एक बैठक हुई।
मध्य प्रदेश
१९३८ में उज्जैन में शाखा शुरू हुई। १९४१ में इंदुर में मैनाताई ने कार्य प्रारंभ किया। महाराष्ट्र की और कन्याएँ विवाह होकर मध्य प्रदेश आयी और जबलपूर सागर, रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग यहां कार्य प्रारंभ हुआ। मा. ताई अंबर्डेकर ने १९४३ से प्रवास करना प्रारंभ किया और कार्य बढा। १९४५ में ताई जी ने मध्यप्रदेश की कार्यवाहकिा का दायित्व संभाला। इंदुर, ग्वाल्हेर भोपाल,देवास आदि संस्थानों में कार्य बढता रहा। 
गुजरात
१९४२ में पुणे की एक सेविका अतिथिरूपी कर्णावती आयी। पुणें में हररोज सायंकाल शाखा में जाने की आदत ने उसे मजबुर किया और शाखा प्रारंभ हुई। बहुतांश लोग व्यापारी होने के कारण सुखासीन और रूढिप्रिय थे। बालिकाओंके प्रवृत्ति घर स बाहर निकलने की नहीं थी। फिर भी यह पौंधा धीरे-धीरे अपनी जडें दृढ करता रहा। शिक्षा वर्ग के लिये यहां की सेविकाएँ महाराष्ट्र में जाती थी। अब महाराष्ट्र के वर्गो में यह आवश्यक होने लगा कि बौद्धिक, चर्चा के विषय रात के समय गुजरात, मध्य भारत,पंजाब, qसध की बहनों को हिंदी में समझाना। सौराष्ट्र और कच्छ में भी कार्य का प्रसार हुआ।
आंध्र प्रदेश
१९४७ में सोलापुर से माई अफजलपुरकर भाग्यनगर आयी। काम प्रारंभ हुआ। मुस्लिम प्रभावित प्रांत हुए भी नयी बहनें कार्य बढानें मिलती और काम अग्रेसर होता रहा।
सिंध
१९४३ में यहां कुछ बहने नागपुर के शिक्षा वर्ग में संमिलित हुई। वापस आने के बाद काम शुरू हुआ। दस शाखाएँ चलने लगी। कार्य जोर शोर से शुरू हुआ। १९४७ में जब वं. मौसी जी कराची में गयी तब १२०० सेविकाएँ रात के समय भयावह परिस्थिती में भी उपस्थित रही। इसीसे पता चलता है कि,काम कितना बढा था। दुर्भाग्यवश qसध पाकिस्तान में चला गया। विस्थापित होने के बाद भी कुछ सेविकाएँ कार्य से जुडी रही। qसध की सौ बहनों की, मुंबईकी सेविकाओंने, उनकी व्यवस्थश होने तक लगभग एक साल अपने गरों में व्यवस्था की थी। ठाणे वर्ग पर बीस qसधी सेविकाएँ संमिलित थी।
१९३६ से १९४ तक केवल ग्यारह वर्ष के कालखंड में पुरा महाराष्ट्र, सिंध, मध्य प्रदेश,आंध्र, गुजराथ,समितिकार्य से व्याप्त हुए। कर्नाटक के सीमावर्ती भागों में भी कार्य शुरू हुआ था। कुल मिलाकर २४० स्थानों पर दैनंदिन शाखाएँ थी। उनमें लगभग १३,००० बहनें उपस्थित थी। सभी वयोगट होने के कारण शाखा पर शिशु, अरूण, प्रौढ ऐसे चार गण  रहते थे।

कर्नाटक
१९४७ में बेलगांव में काम शुरू हुआ। कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा पर बसा हुआ यह शहर। स्वाभाविक ही कार्यकर्ताओं को कन्नड भाषा सीखनीं पडीं। महाराष्ट्रीय और कन्नड महिला एक ही शाखामें यह चित्र दीखने लगा। १९४८ में बंगलोर,धीरे-धीरे धारवाड, कुंदगोल आदि स्थानों पर काम बढा। कन्नड मराठी संघर्ष जोरशेर से शुरा हुआ था। लेकिन शाखा पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पडा। १९६७ में वं. मौसी जी का वहां प्रवास हुआ।
तामिलनाडू
१९६८ में मा. qसधुताई फाटक किसी कारणवश वहां गयी थी। तब उन्होंने महिलाओं की बैंठक ली।   पाच दिन का शिबिर लगा। कार्य की जानकारी प्राप्त हुई और मद्रास में काम प्रारंभ हुआ। प्रथमवर्ग में मा. प्रमिलाताई मुंजे उपस्थित थी।
केरळ
शायद भाषागत समस्या के कारण यहाँ काम प्रारंभ होन में देर हुई। १९७५ में मा. कुसुमताई साठे जी का प्रवास तय हुआ। अंग्रेजी में बातचीत करनी पडी।  बौद्धिक वर्ग तथा परस्पर वार्तालाप के लिये कई बार दुभाqषओंका माध्यम स्वीकारना पडा। धारवाड से शिक्षिकाएँ बुलाकर पालघाट में पंधरा दिन का वर्ग होने के बाद कार्य प्रारंभ होने ही लगा कि आपात्काल ने वह प्रभावित कर दिया। फिर भी पत्र द्वारा संपर्क होता रहा। १९७८ के नागपुर के वर्ग में १३ सेविकाएँ संमिलित हुई। वे वापस जाने के बाद कार्य बढता रहा।
बिहार
भारत की पूर्व दिशा में पहुँचने के लिये समिति को जरा ज्यादा समय लगा। बिहार में स्त्रियाएँ कुछ सामाजिक कार्य करें यह मानसिकता आज भी कम है। उस समय की बात ही क्या? १९६५ में पटना गयी हुई वनिता आठवले इस विवाहित सेविका ने १५ दिन का शिक्षावर्ग लगाया। उनके निरंतर प्रवास से काम बढता गयां।
उडिसा
पति के नोकरी के कारण गयी हुई एक सेविका ने यहां साधारणतया १९६६-६७  में कार्य प्रारंभ किया। काम धीमी गति से बढा। अधिकारियोंका प्रवास होता रहा। फिर भी विस्तारिका की आवश्यकता थी। महिलाओंके लिये घर से बाहर कुछ दिन समिति कार्य के लिये रहना उससमय कठिन था। फिर भी मध्य प्रदेश की एक गृहिणी ने यह जिम्मेदारी संभाली और कार्य गतिशील बना।
बंगाल
१९६८ में सांगली की एक सेविका कलकत्ता पहुंची। मैदान का अभाव और नक्षलवादियों का प्रभाव! तनावपूर्ण वातावरण! बालिकाओं और महिलाओं को बाहर कैसे भेजे? काम प्रारंभ करना कठिन था। qकतु जिद्द और नियोजन से सफलता मिलने लगी।
असम
बंगाल से सभी अधिक तनाववाला वातावरण। qकतुएक आशा का किरण था। यहां की महिलाएँ स्वतंत्र है। फिर भी ऐसी सुदूर क्षेत्र में पहुँचना कार्यकर्ताओंके अभाव के कारण कठिन था। वहाँ की कुछ बहनों को नियोजन से कानपुर वर्ग में १९६८ में बुलाया गया और कार्य का सूत्रपात हुआ। १९७०, १९७९ में अधिकारी प्रवास, नागपुर से भेजी गयी दो तीन विस्तारिकाएँ इनके सहयोग से काम बढा।
दिल्ली
१९४७ में दिल्ली पहुंची मा. काकू परांजपे ने प्रयास किया। योजना से महाराष्ट्र की दो तीन सेविकाएँ की शादी भी दिल्लीस्थित युवकोंसे की गयी। फिर भी वहाँ कार्य ने मूल नहीं पकडा और १९५१ में काकू की मृत्यु हुई। लेकिन प्रयास चलते ही रहें और १९५७-५८ में मा. qसधुताई की यहां योजना हुई और १९६० से कार्य दृढता से चल रहा है।
राजस्थान
मा. qसधुताई को राजस्थान का भी दायित्व दिया था। उनका कार्य राजस्थान में १९६१ में शुरू हुआ। दिल्ली वर्गो में कुछ सेविकाएँ संमिलित होने लगी। तब से आज तक कार्य लगातार चल रहा है।  यहां भी महिलाएँ शिक्षा प्राप्त कर कुछ करें ऐसी समाज की मानसिकता नहीं थी।

पंजाब
पंचनदों के कारण उपजाऊँ बनी यह भुमी। विदेशी आक्रमणोंसे सदैव जुझना पडा। अशांतता में सांस्कृतिक कार्य पनपना कठिन रहता है। १९५८ में प्रारंभ हुआ यहां का कार्य गतिशील नही हो रहा था।  १९८० में यहांं पति के नोकरी के कारण पुणे से एक सेविका आयी । उसने उस मुरझे पौधे को पुनरूज्जीवित किया। १९८४ में यह प्रांत फिर समस्यायुक्त बना। अत: पौधा बहोत तरोताजा तो नही हुआ। लेकिन मुरझाया भी नहीं। अधिकारियोंका प्रवास, विस्तारिकाओंका कार्य उसे ताजा रखनें में सफल है।
हिमाचल
१९४७ में नागपुर के शिक्षावर्ग के लिये यहाँ से १५ बहने आयी थी। उन्होंने उसके पूर्व शुरू हुआ कार्य बढाया। मा. qसधुताईजी ने भी बार-बार प्रवास किया। जनसंख्या मे केवल पांच प्रतिशत हिंदु होते हुए भी उधमपुर, किश्तवाड आदि स्थानों पर काम चल रहा है।
जम्मू- यहां एक कार्यालय और एक छात्रावास भी है।
हरियाणा
१९६२ में यह प्रांत बना तब से कार्य शुरू है। अंबाला, कर्नाल,पानीपत आदि स्थानों पर कार्य चल रहां है।
उत्तर प्रदेश
सामाजिक कार्य करने की प्रवृत्ति कम होने के कारण दिल्ली के साथ शुरू हुआ कार्य धीमी गति से बढा। १९७७ में वं. उषातार्स जी के प्रांत प्रवास से उसकी गति बढी। आज सारे जिलों तक तथा कुछ तहसीलों तक कार्य पहुंचा है
इस तरह १९७८ तक अर्थात वं मौसी जी के जीवनकाल में ही समितिकार्य संपूर्ण भारत में पैला हुआ था। अर्थात कभी कभी विपरीत परिस्थिती का सामना भी करना पडा। स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद हुई शिथिलता, महात्माजी के वध के बाद हुआ कार्य, अन्यान्य प्रांतों की झेलनी पडी प्राकृतिक आपदायें,१९६२ , ६५ और ७१ के युद्धोंके कारण संबंधित प्रांतों में आयी हुई अनिश्चितता, १९७५ से ७७ तक के आपात्काल में प्रकट कार्य करने की कठिनार्इं जैसी विपदाओं का सामना करते हुए भी काम आगे बढता रहा। आज भी जम्मू काश्मीर, असम जैसे आतंकवाद से ग्रस्त क्षेत्रोंमें भी काम बढ रहा है यह  निश्चित ही गौरवास्पद है।
एक और बात उल्लेखनीय है की शादी होकर या पति के तबादले के कारण अन्य स्थानों में गयी हुई सेविकाओं ने कार्य अन्यान्य जगहोंपर प्रारंभ किया है। महिला ने सामाजिक कार्य करना, स्वतंत्र रूप से प्रवास करना, घर घर जाकर संपर्क करना,भाषण देना, खुली जगह में व्यायाम करना, या खेलना, जातपात का विचार नहीं करना आदि से समाज को अभ्यस्तकरना पहा। समाज की मानसिकता बदलनी पडी। प्रथमत: तो महिलाएँ संघटन कर सकती है यह भी विश्वास नहीं था।
समाज की मानसिकता बदली औैर कार्यप्रसार के लिये विस्तारिकाएँ निकलने लगी। समिति के बाद अन्य संस्था संघटनों में प्रचारिकाएँ निकलती गयी। देश के राज्यों में प्रांतप्रचारिकाएँ कार्यरत है। कुल शाखाएँ ४९०० है।
इस भौगोलिक क्षेत्रविस्तार के साथ समिति कार्य में विविध आयाम जोडे गयें।