नेतृत्व की तेजस्वी ज्योति - रानी लक्ष्मीबाई

Rashtra Sevika Samiti    06-Mar-2023
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नेतृत्व की तेजस्वी ज्योति - रानी लक्ष्मीबाई



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१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम को अपने नेतृत्व से नया आयाम देने वाली साहसी, शूर युवती का चरित्र नित्य प्रेरणा देनेवाला है। उनकी तेजस्विता स्वदेशाभिमान, स्वातंत्र्य प्रेम अभूतपूर्व था।
 

उनका जन्म वाराणसी में कार्तिक कृ. १४ नवम्बर १८३५ को हुआ। मोरोपंत तांबे तथा भागिरथी की यह कन्या मणिकर्णिका, मनु, छबीली नाम से परिचित थी। ब्रह्मावर्त में दूसरे बाजीराव पेशवा के आश्रय से तांबे परिवार रहता था। बाजीराव के पुत्र रावसाहब और नानासाहब के साथ मनु की भी शिक्षा प्रारंभ हुई। पेशवाओ के सान्निध्य से उनके मन में स्वतंत्रता का स्फुल्लिंग सुलग उठा। उसकी ही प्रलयंकार ज्वालांएँ १८५७ में प्रकट हुई।

 
तेजस्वी बाल्यकाल
मनु के बालजीवन की एक दो घटनांएं प्रसिद्ध हैं। वह छोटी थी तब उसको गंगा माता के किनारे जाकर बैठने की आदत थी। ऐसे ही एक दिन घाट पर नदी प्रवाह में पैर डालकर वह बैठी थी तब दो- चार अंग्रेजी सिपाही आए और घाटों पर बैठने वाले सभी को हटाने लगे और ‘मैडम आ रही है उठो, हटो ‘का शोर मचा ' सभी लोग डर के मारे भागने लगे परंतु मनु वैसे ही बैठी रही। ऐसा देखकर सिपाही गुस्सा हो गए। छोटी सी मनु निर्भयता से उनको पूछती है- 'कौन आ रहा है? सबको क्यूँ हटा रहे हो?' ‘जब पता चला की कोई अंग्रेज अधिकारी की पत्नी आ रही है तो मनु ने कहा,‘वह कौन होती है हमें हटाने वाली? गंगा मैय्या हमारी है। हम नहीं हटेंगे।’ जबरदस्ती हटाने का प्रयास करने पर वह चिल्लाकर प्रतिकार करती रही। एक बार नानासाहब और राव साहब घुडसवारी का अभ्यास कर रहे थे तब घोडा बेकाबू हो गया और नाना साहब गिर गए। मनु ने यह देखा तो वह जोर से हंस पडी। नाना साहब को बहुत गुस्सा आया। सेवक उनको उठाकर ले गए। दूसरे दिन मनु उन्हें देखने गई। नाना साहब का गुस्सा उतरा नहीं था। मनु आती हुई देखकर उन्होंने दीवार की ओर मुंह फेर लिया। मनु के पुछने पर उन्होंने बताया कि, ‘हम गिर गये, और तुम हस रहीं थी? अगर तुम गिर जाती तो? ‘मनु अबतक मजाकी मानसिकता में थी। अब गंभीर होकर बोली, ‘एक तो मै घोडे पर ऐसी पकड रखूंगी की घोडा बेकाबू होकर मै कभी गिरूंगी नहीं और यदा कदा गिरूंगी तो रोऊँगी नहीं। जो कुछ होगा धैर्य से सह लूँगी’ मनु की नियति ही मानो बोल रहीं थी।
 
राज परिवार से होने के कारण नाना साहब राव साहब हाथी पर बैठ रहे थे। छोटी मनु के मन में भी हाथी पर बैठने की इच्छा हो रही थी तब उसको कहा गया, ‘तुम तो आश्रित की बेटी हो, राजवंश के लोग ही हाथी पर बैठते है। ‘मनु को घोर अपमान महसूस हुआ। उसने कहा कि आप भी देखेंगे की मेरे दरवाजें पर ४-४ हाथी झूलेंगे। और सचमुच मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर पंत नेवालकर से हुआ। हाथी पर बैठकर रानी की शान से ही उन्होंने झांसी में प्रवेश किया। तुरंत उसने एक हाथी बहुत सजा धजाकर ब्रह्मावर्त में भेंट रूप भेज दिया। ऐसी थी वह मानिनी।
 
नेवालकर पूर्व इतिहास
गंगाधर पंत के पूर्वज रघुनाथ राव ई. स. १७७० में झांसी के सूबेदार बने। उनके भाई शिवराम भाऊ १७७१ में सूबेदार बने। बसई समझौते के पश्चात १८०४ में अंग्रेजों और शिवराम भाऊ में समझौता हुआ उसके अनुसार झांसी का राज्य वंश परंपरागत शिवराम भाऊ के वंशजों को ही मिलेगा ऐसा तय हुआ। शिवराम भाऊ के पुत्र गंगाधर राव ई.स. १८४२ में झांसी के अधिपति बने। ३० लाख रू. आमदनी वाला हिस्सा अंग्रजों ने झांसी में व्यवस्था हेतु नियुक्त अपनी सेना की व्यवस्था के लिये रख लिया।
 
वैभव संपन्नता
गंगाधर राव के राज्य में शासन तथा न्याय की उत्तम व्यवस्था थी। ठाकुर, बुंदेले का विद्रोह उन्होंने दबाया। परंतु वे रसिक, कलाप्रेमी थे। कलाकारों को आश्रय देते थे। उनका महालक्ष्मी का मंदिर जगमगाता था। उनके पास ९२ हाथी, १०० घोडे ,५०० घुडसंवार और ५००० पैदल सैनिक थे। स्थान-स्थान पर बगीचे, तालाब नाट्यगृह थे।
 
ऐसे सुंदर, वैभव संपन्न राज्य की स्वामिनी मनु बनी थी। गंगाधर राव को पुत्र नहीं था। पत्नी का स्वर्गवास हुआ था। कला सक्त राजा को संभालने वाली रानी आएगी तो वह झांसी को बचाएगी। अंग्रजों की आखें इस राज्य पर गडी थी। मनु जैसी दृढ निश्चयी , देशप्रेमी युवती उनसे टक्कर ले सकती है। इस राजनीतिक उद्देश्य से यह विवाह हुआ ऐसे माना जाता है।
 
१८४२ में गंगाधर पंत और मनु का विवाह हुआ। दोनों की आयु में अंतर था। १८५१ में लक्ष्मीबाई को पुत्र हुआ परंतु वह अल्पायु रहा। इस आघात से गंगाधर राव का स्वास्थ्य गिरने लगा। राजवैद्य की दवाइयां व रानी लक्ष्मीबाई की सेवा का विशेष उपयोग नहीं हो रहा था। अत: एक बालक गोद लेने का निर्णय किया। गोद लिये हुए बालक का नाम दामोदर रखा गया। इस समारोह में झाँसी राज्य के पॉलीटिकल एजेंट एलिस, सेना के प्रमुख अधिकारी मेजर मार्टिन मोरोपंत आदि लोग उपस्थित थे। अंग्रेज सरकार को दत्तक विधान की स्वीकृति देने हेतु आवेदन पत्र गंगाधर राव ने भेजा। समय-समय पर अंग्रेजों को दी हुई सहायता एवं उनके साथ किये हुए संधि की ९ वी शर्त का स्मरण दिलाया गया।
 
झांसी अनाथ हुई
आखिर गंगाधर राव का शरीर दि. २० नवंबर १८५३ को शांत हुआ। झांसी शहर शोक सागर में डूब गया। लक्ष्मी बाई पर कुठाराघात हुआ। मेजर मार्टिन और एलिस ने सांत्वना पत्र भेजा परंतु उसी समय उन्होंने राज्य का खजाना मुहरबंद किया। शिंदे की ६वीं टुकडी को उसके संरक्षण का दायित्व दिया। श्री. गंगाधर राव के पत्र का उत्तर नहीं आने पर लक्ष्मीबाई ने १९ फरवरी १८५४ को गवर्नर जनरल के पास पुन: आवेदन पत्र भेजा।
 
विस्तार वादी नीति
लॉर्ड डलहौजी़ की नीति थी कि किसी का भी दत्तक विधान मंजूर नहीं करना और राज्य को कंपनी राज्य से जोडना तथा अंग्रेजी राज्य का विस्तार करना। अत: रानी लक्ष्मीबाई के पत्र का एक ही उत्तर आनेवाला था, आया भी। 'झांसी का राज्य अंग्रेजी राज्य में विलीन करो। दत्तक विधान को मान्यता नहीं दे सकते'। एलिस यह पत्र लेकर रानी लक्ष्मीबाई के दरबार में पहुँचा। तब सिंहनी जैसी गरजकर वो बोली, ‘ मै मेरी झांसी नहीं दूंगी' एलिस को ऐसी अपेक्षा नहीं थी। अपनी भूमि, अपना राज्य विदेशियों को सौंपकर गुलामी स्वीकार करना रानी के लिये असंभव था। परंतु अंग्रेजी बलशाली थे। उनकी हडप नीति के शिकार झांसी जैसे पंजाब, सातारा, नागपुर, अयोध्या, आदि अनेक राज्य थे।
 
महारानी लक्ष्मीबाई ने राजनीतिक दृष्टिकोण रखते हुए अपना गुस्सा पी लिया और प्रतिशोध का अवसर खोजती रहीं। झांसी आते ही अपनी इच्छा पति को बताकर महिला पथक तैयार करवाए । उन्होनें कभी गहनों की, वस्त्रों की चाह नहीं रखी। इस पर गंगाधर राव को आश्चर्य होता था। उन दिनों में महिलाओं को घर से बाहर मैदान में आना समाज को मान्य नहीं था। परंतु रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी इच्छा पूरी करने के लिए पति को मना लिया था। उसका अब उपयोग होगा यह सोचकर रानी ने अपनी व्यक्तिगत आपत्ति के कारण शोक में न डूबते हुए महिला सैनिकों का अभ्यास चलता रहे यह देखा।
 
विस्फोट की ज्वालाएं
७ मार्च १८५४ को झांसी राज्य की स्वतंत्रता पूरी तरह समाप्त कर दी गई। अंग्रेजों की सत्ता को १०० वर्ष पूरे होनेवाले थे। अंग्रेजों के अत्याचार बढते ही जा रहें थे। अपनी भारत माता को धीरे-धीरे गुलामी के शिकंजे में फंसाने का उनका कुटिल षडयंत्र सभी को ध्यान में आ गया था। विद्रोह की ज्वाला अंदर ही अंदर सुलग रही थी। ३१ मई को सभी स्थानों पर विद्रोह एक साथ करने की योजना में अनेक लोग सम्मिलित हो रहे थे। रोटी और कमलपुष्प का संकेत चिन्ह था। परंतु अचानक १० मई १८५७ को विस्फोट हुआ मेरठ की छावनी में बंदूक की गोलियों को गाय या सुअर की चरबी लगायी गई, वह मुंह से खोलना पडता था। यह धर्मविरुद्ध आचरण का पाप हम कर रहे हैं, ऐसी भावना फैलती गयी। सैनिक जब बाजार में जाते थे। तब महिलाएं उन्हें चिढाती थीं या कभी चूडियाँ भेंट करती थीं। चरबी की घटना के कारण छावनी में क्षोभ फैल गया व १० मई को मंगल पांडे ने विद्रोह कर दिया उसको तोप से उडा दिया गया। अन्य ९० सैनिकों को १० साल के लिये कारावास में भेजा गया। इस घटना ने तो आग में घी डालने का काम किया। अंग्रेज अधिकारियों की हत्या करना, उनके बंगलों को आग लगाना, कारागृह तोडना आदि का सिलसिला चल पडा। सैनिक अपनी छावनी छोडकर दूसरी छावनियों में जाकर वहां क्रांति की ज्वाला जलाने में लगे। ४ जून १८५७ को झांसी सेना की ७ वी टुकडी ने झांसी के किले में प्रवेश कर अपना अधिकार जमा लिया। गोरे अधिकारी गोलियों से भूने जाने लगे। उन्होंने किले में आश्रय लिया। क्रांतिकारी वहां भी पहुँचे। वहां भी गोलियां चली। अंग्रजों ने संधि का प्रस्ताव दिया। क्रांतिकारियों की घोषणा थी। ‘खुल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल रानी साहिब का’ ८ जून को किला रानी को सौंपकर क्रांतिकारी दिल्ली की ओर बढे।
८ जून १८५७ से ४ अप्रैल १८५८ तक रानी का अत्यंत गौरवशाली कार्यकाल रहा। परंतु उनको घर के शत्रुओं से ही निपटना पडा। साशिवराव पारोलकर झांसी के राज्य उत्तराधिकारी के नाते खडे हुए और करेरा का किला अधिकार में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने सेना की सहायता से वह किला जीत लिया। ओरछश के दीवान नत्थे खां का आक्रमण भी रानी ने विफल किया। उससे युद्ध का खर्चा वसूल किया।
 
तेजस्वी व्यक्तित्व की धनी
रानी लक्ष्मीबाई अत्यंत तेजस्विनी थी। दरबार में वह अत्यंत आत्मविश्वास से शुभ्र वेष धारण कर या पुरूष वेष पहन कर फेंटा बांधकर आती थीं। कुशल रीति से न्याय करना, गुणवंतो का सम्मान करना, निर्भयता, धैर्यशीलता, साहस ये उनके कुछ विशेष गुण थे। शूरवीर सैनिकों की भी उदार मन से सहायता करती थी। युद्ध में घायल हुए सैनिकों की वह खुद पूछताछ करके मलहमपट्टी करती थी। बहुत घायल या मरणोन्मुख सैनिक की अंतिम इच्छा पूछती थी। कुछ सैनिक उनके मातृस्पर्श की अपेक्षा रखते थे। उनके मन में विश्वास था कि हमारी रानी हमारे परिवार की पूरी चिन्ता करेगी। मातृत्व की झालर जैसा नेतृत्व यही हमारी परंपरा है। नेतृत्व के बारें में पूर्ण विश्वास यहीं नेता का बल है।
 
अपने ११ मास के कार्यकाल में रानी लक्ष्मीबाई ने काफी शस्त्र व बारूद का संग्रह किया। तोपें व बारूद बनाने के कारखाने भी प्रारंभ किये। दूरदर्शिता के कारण उसने समझ लिया था अंग्रेजो से घनघोर युद्ध करना पडेगा। और सच में २१ मार्च को ह्यू रोज झांसी में पहुंचा। उसने मार्ग में सागर, वाणपूर, शहागढ, के क्रांतिकारियों पर विजय प्राप्त कर ली थी। ह्यू रोज ने मौके के स्थान पर मोर्चे लगायें। रानी लक्ष्मीबाई के पास शक्तिशाली ८० तोपें थीं। खुदाबक्ष और गौसखान ये दो अत्यंत एकनिष्ठ तोपची थे। बारूद खाद्य सामुग्री आदि में स्त्रियां भी पीछे नहीं थीं।
 
एक बुंदेला सैनिक ने अंग्रजों को मोर्चा लगाने के लिए उपयुक्त स्थान बताया। रानी साहिबा के निवास स्थान के सामने वाले मैदान पर ही गोला-बारूद का कारखाना था। वहां एक गोला आकर गिरा। जोरदार धमाका हुआ और अपरिमित हानि हुई| दि. १ अप्रैल को २० हजारकी सेना लेकर सहायता के लिए तात्या टोपे आ रहें थे। उनके सैनिक प्रशिक्षित नही थे। रास्ते में उनको घेरकर अंग्रजों ने हमला किया तो उनको भागने के लिए विवश होना पडा। इस सबके बावजूद भी अंग्रेज झांसी के किले में प्रवेश नहीं कर पाए। झांसी के हर नागरिक, हर सैनिक ने प्रतिकार किया। भेदवृत्ति रखने वाले जयचंदो की कुछ कमी नहीं रहती, ऐसा ही एक जयचंद निकला उसने किले का दरवाजा खोल दिया। अंग्रेज़ आसानी से अंदर प्रवेश कर गए। रानी ने चंडी का अवतार धारण किया , तत्परता से वहां गई और शत्रु का नाश करना प्रारंभ किया, लेकिन अंग्रेज सैनिकों की संख्या अधिक होने के कारण उन्हें लौटना पडा। झांसी के रास्ते पर नागरिकों की मारकाट निरंतर तीन दिन तक होती रही। शव ही शव बिखरे थे। दुर्गंध सभी ओर फैल रही थी। रानी का महल भी टूट चुका था। उनका अमूल्य ग्रंथ संग्रह भी ध्वस्त किया गया। जान माल को काफी क्षति पहुंचाई गई, परंतु वे हमारी बुद्धि को नहीं जला पाए।
 
प्रजा वत्सल रानी माँ का ह्रदय अपने लोगों की यह दुर्दशा देखकर द्रवित हुआ। उन्हे अतीव निराशा हुई परंतु इसके पश्चात भी सभी से विचार विमर्श करके उसी के अनुसार किले से बाहर निकलकर राव साहब की सेना से मिलकर प्रयत्न करने का तय हुआ। इस युद्ध में रानी ने युद्ध का उत्कृष्ट संचालन किया।
 
ह्यू रोज को यह पता चलने पर वह आश्चर्यचकित हुआ। झांसी से कालपी की १३० मील की दूरी २२ घंटो के अंदर तय कर के वो कालपी पहुंची। तात्या टोपे ने युद्ध का नेतृत्व किया परंतु यश नहीं मिला।विचलित ना होते हुए रानी ग्वालियर की ओर बढी, परंतु शिंदे के साथ नहीं मिल पाई। युद्ध में सेना की व्यूहरचना बडी ही कुशल थी। उस दिन उनके हाथ में नेतृत्व नहीं था। इस भीषण रण में उनकी सखी सुंदराबाई पर हमला करने वालों को उन्होनें मौत के घाट उतार दिया। महारानी लक्ष्मीबाई को पकडने वालों के लिए २०,००० रु. का इनाम अंग्रेज़ सरकार ने रखा था। रणक्षेत्र में ही उनकी प्राण ज्योति शांत हुई। गंगादास बाबा ने कुटि में ही उन का अग्नि संस्कार कर दिया। ‘मै क्या मेरा एक बाल भी अंग्रजों को नही मिलेगा’ यह उनकी प्रतिज्ञा उन्होंने सच कर दिखाई। वह दिन था दि. १८ जून १८५८ ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी।
 
क्रांतियुद्ध में सतत अग्रेसर रहकर हजारों वीरों का स्फूर्ति स्थान होनेवाली रानी लक्ष्मीबाई की युद्ध कुशलता किसी पुरूष से कई गुना श्रेष्ठ थी। उनकी तेजस्विता का प्रभाव शत्रु पर ही पडा था। राजमाता के नाते उन्होंने काफी समाज कार्य किया। सामान्य लोगों में वो घुल-मिलकर बातचीत करती थी। उनके सुख दुख पूछती थी। अपनों के लिये ममतामयी माँ होनेवाली यह सज्जनता की मूर्ति राष्ट्रीय भावना से प्रेरित हुई थी। हाथ में तलवार लेकर रणरागिणी बनकर बिजली जैसी चमकती थी तब शत्रु थर्रा जाते थे।
 
अध्ययन हेतु पुस्तकें -
 
१) झांसी की रानी-वृंदावनलाल शर्मा
२) क्रांतिकथाएँ- श्रीकृष्ण सरल
खड्गधारिणी तुम्हें देत मानवंदना,
शत्रुसंहारिणी तुम्हारी आज अर्चना ।।धृ।।
शाम शांत धी मूर्ति तेजोमयि दिव्यकांति
अश्वारूढ देवि क्रान्ति! बार बार वंदना ।।१।।
स्वाभिमरन दीप्त ज्योति बिजलीसे चंचल गति
वीरों को दे रहीं चंडीमूर्ति चेतना ।।२।।
बीत गया वत्सरशत युद्धानल सर्व शांत
स्वतंत्र राष्ट्र आज स्मरें तुम्हारी तप: साधना ।।३।।
राणी लक्ष्मी अमर नाम आर्य नारी का विक्रम
पुण्यरूप लो हमारी नम्र पूज्य भावना ।।४।।
 
जय जय कार करो लक्ष्मी का
जय जयकार, जयजयकार.जय जयकार करो लक्ष्मी का जो रणचंडी का अवतार ।।धृ।।
तांबे कुल में जनम लिया, निज मात-पिता का यश फैलाया
रानी बन झांसी में आई,राजवंश का मान बढाया
सैनिक शिक्षण दे सखियों को, महिला पथक किया तैय्यार ।।१।।
हुआ आक्रमण जब झांसी पर, शासन छोडो बोला गोरा
मेरी झांसी कभी न दूँगी, कडकी बिजली काँप उठी घरा
रक्षण करने हिन्दू राष्ट्र का, हुई भवानी तब साकार ।।२।।
स्वतंत्रता के प्रथम समर की, सेनानी वह वीर शिरोमणि
किया युद्ध का सफल संचलन, रण में चमकी थी रणलक्ष्मी
दुष्ट दुर्जनों का महिषासुर मर्दिनी ने ही किया संहार ।। ३।।
एक बार पुनि आज दुहिते करती माता तुझे स्मरण है
पारतंत्र्य की लोह शृंखला, करने लगी पुन: झन झन है
स्वतंत्रता की ज्योति जलाओ, सुनो हमारी आर्त पुकार ।। ४।।