मातृत्व का आदर्श - जीजामाता

Rashtra Sevika Samiti    06-Mar-2023
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सूर्य से पहले अभिवादन करे पूर्व दिशा को
शिवबा से पहले अभिवादन जीजामाता को


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ऐसा कहा गया है। शिवबा ने स्वयं पराक्रम से हिन्दवी साम्राज्य निर्माण किया। परंतु जिसकी कोख से इस तेजस्वी वीर ने जनम लिया उसको प्रणाम करना अत्यंत आवश्यक है।
 
शिवाजी महाराज के जन्म से पूर्व ८ दशकों तक मुस्लिमों के सतत आक्रमणों के कारण हिंदू समाज दुर्बल स्वत्वहीन बन गया था। उसकी प्रतिकार शक्ति लुप्त हो गई थी। गुलामी की चुभन भी मिटती जा रहीं थी। ‘यही हमारी नियति है। भगवान रखेगा वैसा रहना है' ऐसी मानसिकता बन गई थी।'हम ‘स्वामी’ हैं यह भावना समाप्त होकर किसी ना किसी मुस्लिम राजा की नौकरी करना और उनका पक्ष ले कर दूसरे मुस्लिम राजाओं से लडना अर्थात हिन्दुओं से ही लडना उनको काटना, मारना। मुस्लिम राजा की विजय अपनी विजय मानना यहीं मानसिकता बन गई थी। 'हम हिन्दू हैं' यह कहलानें में भी हीनता का भाव अनुभव होता था। राजा अर्थात वह मुसलमान ही होगा हम राजा नहीं बन सकते ऐसी क्षुद्रता का भाव हिन्दू समाज में भरा था। हिन्दुओं की उदासीनता के कारण विस्मृति में खोयी अस्मिता को जगानेवाली, हिन्दु राष्ट्र का चाणक्य नीति के अनुसार पुनर्निर्माण करनेवाली, हिन्दुस्थान को यवन भूमि बनने से रोकनेवाली, एक दृढ संकल्पित महिला १७ वी शताब्दी में सिंदखेड के राजा लखुजी जाधव के कुल में जन्मी नाम था जीजा।
 
बाल्यकाल से ही हिन्दू देवालयों,श्रद्धास्थानों का मुस्लिमों द्वारा अपमान, महिलाओं का अपहरण, ये घटनाएँ नित्य देखती थी। यह देखकर उसका मन व्याकुल हो उठता-किसकी विजय के लिये हिन्दू मर रहे है? यह शौर्य वे अपनी स्वतंत्रता के लिये क्यों नहीं दिखा सकते? उनको कौन प्रेरित करेगा? उसके उन प्रश्नों का उत्तर देने में कोई भी समर्थ नहीं था। बाल जीजा के मन पर एक-एक खरोंच उठ रहा था।
 
लखु जी राजे जाधव के घर पर प्रति वर्ष रंग पंचमी का पर्व धूमधाम से मनाया जाता था। १६०५ की रंगपंचमी महत्वपूर्ण थी। उस दिन मालो जी भोंसले अपने पुत्र शाहजी को लेकर उपस्थित थे। शाहजी और जीजा परस्पर गुलाल खेलने लगे। मालोजी ने मजाक में कहा, ‘बहुत ही योग्य जोडी है दोनों की। मालोजी समतुल्य होने के कारण मालोजी के साथ यह रिश्ता करने की जाधवराव की इच्छा नहीं थी। जाधव जैसे देवगिरी के यादव वंशज थे वैसे भोसले भी सिसोदिया राजपूत वंश के थे। अपनी सांपत्तिक स्थिती की बात मालोजी को खलती रहती थी। कहा जाता है कि एक दिन उसको सपना आया कि खेत में विशिष्ट स्थान पर खोदने से उसको विपुल धन मिलेगा, वैसा ही हुआ। निजाम शाह ने भी मालोजी का दर्जा बढाया। निजामशाह का यह अप्रत्यक्ष आदेश है ऐसा मानकर जीजा-शाह जी का विवाह ठाठ बाट से संपन्न हुआ।
 
वीररमणी तपस्विनी
शाह जी-जीजा का सहजीवन प्रारंभ हुआ। शाह जी राजा के मन में महत्वाकांक्षा जागी कि दक्षिण में मुस्लिम राज्यों पर हिन्दुओं का जीना दुर्भर होगा। इस उद्देश्य से दोनों में मित्रता नही हो ऐसा शाहजी का प्रयत्न चल रहा था। हिन्दुओं का स्वतंत्र राज्य निर्माण करने की भी शाहजी की कल्पना थी। शाहजी राजा को परिवार की ओर देखने को समय ही नहीं मिलता था। परंतु जीजाबाई ने ससुराल के सभी लोगों का मन अपने शालीन व्यवहार से जीत लिया था।
 
फिर भी एक शल्य उसके मन में था। शाहजी राजे निजामशाही के आधार स्तंभ लखुजी जाधव निजामशाह के-शत्रु की सेवा में। मायके ससुराल संबंधों में दरार बढ रहीं थी। ऐसी अवस्था में जीजा को पुत्र हुआ। उसका नाम संभाजी रखा। निजामशाह ने लखुजी राजा को छलकपट से मारा। चिढ़कर दोनों कुल एक हो गये परंतु मुस्लिमों की विश्वासघाती वृत्ति से जीजा दुखी हुई। यवन विरोधी हिन्दु शक्ति खडी करने की अनिवार्यता बार-बार उसके मन में प्रतीत होने लगी। गर्भस्थ शिशु पर भी उसके संस्कार प्रभाव दिखाते रहे। ऐसी अवस्था में शिवनेरी पर शिवबा का जन्म हुआ। दिन था-१९/२/१६३० फाल्गुन कृष्ण तृतीया शके १५५१।
 
शाहजी राजा का सहवास बाल शिवबा को कम ही मिलता था। मुस्लिम अत्याचारों से व्यथित होकर जीजाबाई ने शिवबा के मन में स्वतंत्रता की आकांक्षा निर्माण की। यवन हमारे देश के शत्रु है यह धीरे धीरे उसके मन में बैठने लगा। वीजापुर के दरबार में बादशाह को उसने प्रणाम नही किया। बैंगलोर में शाहजी राजा के साथ कुछ दिन रहने के बाद जीजाबाई के ध्यान में आया कि विलासिता पूर्ण वातावरण में रहनें से वह शिवबा को अपनी चाह के अनुसार संस्कार नहीं दे सकेगी। अत: बैंगलोर से पुणे में दादोजी कोंडदेव के संरक्षण में शिवबा के साथ जाकर रहने का निर्णय लिया। जीजाबाई की दृढ धारणा थी कि हिन्दुओं की दैन्यावस्था-गुलामी दूर करने के लिए मुझे अपने पुत्र को ही तैयार करना है। गर्भावस्था से लेकर यही विचार प्रबल था। वैसे ही संस्कार बाल शिवाजी को देने हेतु पुणे जैसा और कोई स्थान नहीं था। पति को छोडकर इतने दूर रहना लोकापवाद था। परंतु यह एक महान योजना का अंश है ऐसी स्पष्ट कल्पना के कारण वह लोकापवाद सहन करती रहीं।
 
प्रभावी गृहस्थी
मुझे ही परिस्थिती बदलने वाला पुत्र निर्माण करना है। यह ध्यान में रखते हुए जिजाबाई ने दादोजी कोंडदेव की सहायता से शिवबा को युद्धकला के साथ- साथ रामायण, महाभारत के माध्यम से जीवन दृष्टी भी प्रदान की। दृढ धर्मनिष्ठा, महापुरूषों के के प्रति श्रद्धा, सादगी, शुद्ध चारित्र्य, स्वाभिमान आदि गुणों का बीजारोपण भी दोनों ने अपने प्रत्यक्ष व्यवहार से किया। स्त्री माँ के समान है। उसका अपमान राष्ट्र का अपमान है। यह महत्वपूर्ण संस्कार दिया। पद्मिनी की कथा बताते हुए यवनोंको राज्य में स्त्री कितनी असुरक्षित है यह बताकर स्त्री का सम्मान तुम्हें ही पुन: प्रस्थापित करना है यह आकांक्षा जगायी।
 
कसबा पेठ के पुराने गणेश मंदिर का जीर्णोद्धार करके विघ्न नाशक देवता का आशीर्वाद प्राप्त किया और रहने के लिए लालमहल बनवाया। अपराधियों को दंड दे कर ख्याति अर्जित की। मालव क्षेत्र में चलने वाले आपसी झगडों में न्याय देने हेतु बाल शिवबा और जीजाबाई के सामने लाने की पद्धति दादोजी कोंडदेव ने निर्माण की। प्रत्यक्ष न्याय दान का ही यह प्रशिक्षण था। रांझा के पाटिल ने एक महिला का विनय भंग किया। अपराधी को शिवबा के सामने लाया गया। वह क्या न्याय देता है? सबकी आँखे उस ओर लगी थीं। उस पाटिल की प्रतिष्ठा का विचार ना करते हुए शिवबा ने उसके हाथ पैर तोडने का दंड दिया। जीजा के संस्कार प्रभावी रहे कि न्यायदान में किसी का पद, प्रतिष्ठा या रिश्तों का दबाव नहीं होना चाहिए। उस क्षेत्र में रहने वाले मावल बालकों को योजना पूर्वक शिवबा के साथ जीजाबाई ने युद्ध का प्रशिक्षण दिया। जीजामाता उनको भी संस्कारक्षम कथाएँ सुनाती थीं। उनके गुणोंका शक्ती बुद्धि का उपयोग देश के शत्रु के साथ लडने के लिये सामुहिक रूपसे करने की प्रेरणा उनके मन में जगाई। यह करते करते सामाजिक समरसता की घूँटी भी पिलाई। भविष्य में प्राणोंकी बाजी लगाने वाले साहसी सरकारी भी शिवबा की इसी प्रक्रिया से प्राप्त हुए।
 
स्वराज्य संस्थापना की शपथ
स्वराज्य संस्थापना की कल्पना को साकार करते करते एक दिन शिवबा अपने साथियों को रायरेश्वर स्वयंभू शिव मंदिर में ले गया और अपने रक्त का अभिषेक करते हुए स्वराज्य स्थापना की प्रतिज्ञा ली। यह देखकर सभी साथियों ने भी शिवबा का अनुकरण किया। स्वतंत्र, ‘सार्वभौम हिन्दु साम्राज्य हो यह ईश्वर की इच्छा है। ‘ यह भाव स्वयं के और सभी के मन में जगाया। जीजामाता को इसका पता चला तब उसने उनकी प्रशंसा की। इससे प्रोत्साहित होकर शिवाजी ने तोरणा किला जीतकर स्वराज्य का श्रीगणेश किया।
 
एक बार शिवबा और जीजामाता चौसर पट खेल रहे थे। शिवबा ने पूछा,‘ क्या शर्त रखनी है विजय मिलने पर?’ जीजामाता की सामने वाली खिडकी से कोंडाणा किले पर लहराने वाला हरा झंडा दिख रहा था। विधर्मियों की अन्यायी सत्ता की वह निशानी थी। जीजामाता ने तत्परता से कहा‘ मेरी विजय होने पर वहाँ भगवा निशान चाहिए।’ कितनी सूचक व प्रेरक शर्त। आज बेट द्वारका जाते समय श्रीकृष्ण मंदिर से पहले ही जो आँखों को चुभता है वह भी अतिक्रमणकारियों का हरा झंडा। परंतु आज कोई जीजामाता नहीं जिसकी आखों में वह चुभेगा।
 
सौभाग्य वा स्वराज्य
शिवबा का प्रताप वीजापुर दरबार तक पहुँचा तब उसको रोक लगाने हेतु बादशाह ने शाहजी राजे को अकस्मात बंदी बनाया और पैरों में बेडियां डालकर वीजापुर के रास्ते पर घुमाया। शिवाजी शरण आएगा, शाहजी के प्राणों की भीख माँगेगा, ऐसी उसकी अपेक्षा थी। स्वराज्य या सौभाग्य ऐसा प्रश्न खडा हुआ तब जीजामाता ने स्वराज्य को अग्रक्रम दिया और कांटे निकालने की नीति अपनाई। दिल्ली के बादशाह से संधान बाँध कर उनको दोस्ती का आश्वासन देकर उनका दबाव वीजापुर के बादशाह पर डाला।
शाहजी राजे का ज्येष्ठ पुत्र संभाजी भी वीजापुर दरबार में था। अफ़ज़ल के साथ १६५५ में युद्ध पर गया था। ऐसा कहा जाता है की अफ़ज़ल खान ने कपट से उसकी हत्या की। जीजाबाई वह भूल नहीं पाई। अत: अफ़ज़ल खान को मिलने जाते समय शिवबा को याद दिलाया। यहीं वह अफ़ज़ल ख़ान है जिसने संभाजी को कपट से मारा है। अफ़ज़ल खान इतना पराक्रमी है कि तुम उसके साथ संधि करो- मिलने मत जाओ ऐसा कायरता का संदेश नहीं दिया।
 
शुद्धिकरण की नींव रखी
अफ़ज़ल ख़ान के मन में शाहजी राजे के बारे में द्वेष भाव था। शिवबा को परेशान करने के लिये उसने बजाजी नबालकर को अचानक बंदी बनाया। गले में सांकल बाँधकर हाथी के पैरों तले कुचलने की सजा दी। नार्सक राजे पांढरे ने मध्यस्थता करके वह सजा रद्द करने के लिए यशस्वी प्रयत्न किये। परंतु खान ने एक शर्त रखी। बजाजी को मुसलमान बनना पडेगा। बजाजी ने भी बादशाह अपनी बेटी से उसका विवाह कराएगा ऐसी शर्त लगाई। बादशाह ने वह तुरंत मान्य की। यह घटना फलटन का qनबालकर परिवार व शिवबा को बहुत ही अपमानास्पद लगी। परंतु हिन्दु धर्म में पुन: उसको लाने का कोई रास्ता नहीं था। एक बार नित्यक्रमानुसार जीजामाता शिखर शिंगणापुर में दर्शन करने गईं तब वहाँ बजाजी को बुलाया और जैसे ही उसनें जीजामाता को देखा, उनके पैर पकडकर रोने लगा, तब जीजामाता ने उसको पुन: हिन्दू धर्म स्वीकारने के लिये कहा। बजाजी तो आने के लिये उत्सुक था ही। जीजामाता ने मंत्रीमंडल को बुलाया-धर्मांतरण कैसे गलत जबरदस्ती से था और अब तक यह मामला एक तरफा रहने के कारण हिन्दू समाज का कितना संख्यात्मक राष्ट्रात्मक नुकसान हुआ है। इसलिये इच्छा होने पर शुद्धिकरण नीति कैसी आवश्यक है यह समझाया- बजाजी पुन: हिन्दू बन गया। उसको समाज में प्रतिष्ठा दिलाने के लिये शिवबा की पुत्री सखुबाई का विवाह बजाजी के पुत्र के साथ करवाया। शुद्धिकरण की प्रक्रिया को प्रतिष्ठा देने के लिये जीजामाता ने यह एक अति साहसी, क्रांतिकारी कदम उठाया।
 
इसका परिणाम बहुत ही दूरगामी हुआ। मुस्लिमों को भी धक्का लगा। हिन्दु समाज की मानसिकता बदली परंतु बाद के काल में शासनकर्ताओं को समाज नेताओं को यह भान नहीं रहा और मस्तानी का पुत्र शमशेर बहादुर को मुस्लिम ही रहना पडा। जीजामाता का अभिनंदन इसलिये अधिक करना चाहिये की एक स्त्री ने यह राष्ट्र हितके लिये सामाजिक क्रांति कराई। स्वराज्य के मंत्रिमंडल के कामों में शुद्धिकरण का एक स्वतंत्र विभाग बनाया। मेधातिथि तथा देवल ऋषि के ५०० साल बाद स्वधर्मे में लौटने का मार्ग खोलने वाली, अलौकिक दृष्टि वाली एक महिला थी यह अभिमानास्पद था। नेताजी पालकर, पिलाजी तथा बाजी प्रभु देशपांडे के घर वापसी के उदाहरण प्रसिद्ध हैं। केवल हिन्दू धर्म में वापस लाने तक बात सीमित नहीं थी। परंतु धार्मिक अत्याचार करके धर्मांतरण करने वालों को कठोर दंड शिव छत्रपति देते थे। गोवा के पोर्तुगीज लोगों ने धर्मांतरित हिन्दुओं को वापस देने को नकारने पर पोर्तुगीजों का शिरच्छेद किया। गवर्नरको घबराकर अपना आज्ञा पत्र वापस लेना पडा। आज भारत के अनेक भागों में जबरदस्ती से धर्मांतरण और उत्पीडन हो रहा है। काश! स्वतंत्र भारत के सत्ताधारियों ने शिव चरित्र पढा होता। स्व. सावरकर ‘छ: स्वर्णिम पृष्ठों में लिखते है..
 
मुस्लिम धर्म में गए हिन्दुओं को वापस लाना धर्म विरूद्ध है। इस हिन्दू धर्मियों की धारणा के कारण मुस्लिमों को इस्लामी धर्म के संरक्षण के लिये कुछ भी चिन्ता करनेका कारण नहीं रहा। उनकी एकमेव चिन्ता थी की अपना धार्मिक आक्रमण लगातार बढाकर हिन्दुओं के पास राजसत्ता आई तो भी इस्लामी धर्म सत्ता की कक्षा भारत भर में फैलाने के भागीरथ प्रयत्न चलाना है।
जीजामाता कार्य को और एक प्रशस्तीपत्र
 
अफ़ज़ल खान अत्यंत बलशाली, हिन्दुओं से द्वेष रखने वाला सरदार था। उसको मारकर शिवाजी,जीजामाता को मिलने राजगढ गए, तब उन्होंने कहा, ‘संभाजी का बदला लिया,आपके पराक्रम से मेरी आखें तृप्त हो गयी।ईश्वर की कृपा से यह स्वर्ण दिन आया है। अफ़ज़ल खान वध से हिन्दुओं की शक्ति बढ़ी और मुस्लिमों में भय व्याप्त हुआ।
 
सिद्दी जौहर ने पन्हालगढ को घेर लिया था। दूसरी ओर से शाहिस्तेखान आक्रमण कर रहा था। कोई सेनापति नहीं था। फिर भी मराठी सेना ने वृकयुद्ध के सहारे छापे मारे। पन्हाळगढ का घेरा इतना पक्का था कि चींटी भी घुस नहीं सकती थी। सिद्दी जौहर पर बाहर से आक्रमण करने से ठीक रहेगा ऐसा शिव छत्रपती सोच रहे थे। अपने पुत्र को इस प्रकार फंसा देखकर जीजामाता स्वयं हाथ में शस्त्र लेकर सिद्ध हुईं। नेताजी पालकर ने उनको रोका। शिवबा बहुत चतुराई से पन्हालगढ से निकल गए। माँ बेटे की भेंट हुई इसका शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है।
 
१६४२ से शाहजी राजे, जीजामाता की भेंट नहीं हुई थी। स्वयं को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये पति विरह के दावानल में झोंककर उनकी तपस्या चल रही थी। १६६१ में शाहजी राजे महाराष्ट्र में आये। स्वराज्य प्राप्ति का जीजाबाई को सौंपा हुआ कार्य पुत्र के द्वारा सफल हुआ देखकर अनको बहुत आनंद हुआ। परंतु वापिस जाने के लिये वे बाध्य थे। तीन वर्ष बाद उनकी अपघाती मृत्यु हो गई। जीजाबाई सती होना चाहती थीं। परंतु शिवबा ने उनको रोका। स्वराज्य स्थापना के कार्य में उन्होंने अपार संकट झेले थे। परंतु शाहजी राजा का दु:ख अत्यधिक था। फिर भी खवास खान के आक्रमण का समाचार मिलते ही मंगलोर की ओर नौदल मोर्चे में व्यस्त शिवबा को उन्होंने पत्र लिखकर सचेत किया और उसका पराभव करने की सूचना दी। ‘हमारी मनोकामना पूर्ण करनेवाले सुपुत्र आप है।’ ऐसी आशा प्रकट की। विश्वासघाती घोरपडे को और सावंत उनको भी छोडना नहीं था। राज्यकर्ता में कितना स्वाभिमान व चतुरता चाहिए इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। १६६५ में अपनी दिव्य चरित्र मातोश्री की स्वर्ण तुला शिवबा ने सूर्यग्रहण के समय की और वह सारा स्वर्ण दान कर दिया।
 
शिवाजी हर संकट के पश्चात अधिक बलशाली होते हैं यह देखकर औरंगजेब ने और एक चाल चली। जयसिंह और दिलेर खान को संयुक्त मोर्चे की आज्ञा दी। जयसिंह एक नैष्ठिक हिन्दू कहलाता था। वह दूसरे हिन्दू को - जो हिन्दू स्वराज्य की स्थापना के लिये कृतसंकल्प था, उसको पराजित करने के लिए तैयार हुआ। जब वे औरंगजेब से मिलने आगरा गए तब उनको औरंगजेब ने कैद कर लिया। औरंगजेब की कैद से शिवबा कैसे बाहर निकले यह सब जानते है। परंतु वे जब वापस आकर माँ को मिले तब जीजामाता को कितना आनंद हुआ होगा। आगरा में शेर की गुफा में जाना, प्राण बचाकर आना यह योजना अद्भुत थी । उसमें जीजामाता भी सहभागी थीं।
 
प्रथम विवाह कोंडाणा का
जीजामाता ने स्वराज्य की प्रेरणा सभी में कितनी बलिष्ठ निर्माण की थी, यह तानाजी मालुसरे कोंडाणा लेने के लिये अपने पुत्र का विवाह छोडकर जाते है इससे सिद्ध होता है। परंतु धीरे धीरे जीजामाता ने अपना निवास पाचाड में किया। राज्य व्यवस्था से अपना मन हटाकर वे ईश्वर भक्ति में समय व्यतीत करने लगीं। अब उनका पुत्र सक्षमता से राज्य संभाल रहा था। स्वप्न साकार हो रहा था।
 
स्वप्न साकार हुआ
अब जीजा माता की एक ही इच्छा थी, ऐसे दिग्विजयी पुत्र का राज्याभिषेक देखने की। वह भी समारोह अत्यंत गरिमामय रीति से संपन्न हुआ। जीजामाता का जीवन कृतार्थ हुआ। इसी दिन के लिये जीवन भर उन्होंने प्रयास किए थे। वह उनके बेटे का राज्याभिषेक ही नही था, अपितु हिन्दू अस्मिता सिंहासनाधिष्ठित हो रही थी। हिन्दू शब्द उच्चारने के लिये थर्राने वाले हिन्दू का स्वत्व, स्वाभिमान आज गर्व से सिंहासन पर अभिषिक्त होने वाला था। यह हो ऐसी ईश्वर की इच्छा थी। क्यों कि यह ईश्वरीय देश है। ईश्वरी इच्छा पूर्ती का साधन बनने की कृतकृत्यता उसमें थी। यह समारोह देखने के बाद अपना जीवित कार्य पूर्ण हो गया है, यह शरीर छोडना चाहिए ऐसा उन्होंने सोचा और केवल दो सप्ताह के अंदर सचमुच वो चल बसीं। इतने वर्ष अत्यंत ममता से लालन-पालन किया हुआ अपना पुत्र तथा स्वराज्य जनता को सौंपकर उन्होंने शरीर का मोह छोड दिया।
 
पुस्तक -जिजाऊ मातृत्व का महान मंगल आदर्श - सेविका प्रकाशन
 
धन्य जिजाई
 
स्वयं झुका है जिसके आगे हर क्षण भाग्य विधाता।
धन्य धन्य है धन्य जिजाई ,जगत वंद्य माता ।।धृ ।।
 
जाधव कन्या स्वाभिमानिनी क्षत्रिय कुल वनिता।
शाह पुत्र शिवराज जननी तू अतुलनीय माता। ।
माँ भवानी अराध्य शक्ति से तुझको बल मिलता।।१।।
 
राज्य हिन्दवी स्वप्न युगों का
अश्व टाप शिव सैन्य, काँपती मुगल सल्तनत मन में ।
अमर हो गई तव वचनों हित सिंहगढ की गाथा ।।२।।
 
हर हर, हर-हर महादेव हर घोष गगन गूंजा।
महापाप तरू अफज़ल खां पर प्रलयंकर टूटा।
मूर्तिभंजन अरिशोणित से मातृचरण धुलता ।।३।।
 
छत्रपति का छत्र देखकर तृप्त हुआ तनमन ।
दिव्य देह के स्पर्श मात्र से सार्थ हुआ चंदन।
प्रेरक शक्ति बनी हर मन की जीवन जनसरिता ।।४।।